श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है –
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४–७॥परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥”
अर्थ:- उपरोक्त श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मैं प्रकट होता हूं, मैं आता हूं, जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं आता हूं, जब-जब अधर्म बढता है तब-तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मैं आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की संस्थापना के लिए मैं आता हूं और युग-युग में मानव रूप में जन्म लेता हूं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ रामचरित मानस में भी कहा है कि-
“जब–जब होई धरम की हानी , बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा, हरहिं दयानिधि सज्जन पीरा“
भावार्थ:-
इन पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, असुर, दुराचारी लोगों का अधर्म, अत्याचार, दुराचार बढ़ जाता है, तब-तब कृपा निधान भगवान विष्णु विभिन्न शरीर यानी अवतार धारण करते हैं। असुरों का संहार कर के साधु संत मनुष्य देवताओं का उद्धार करते हैं।
इस तरह भगवान विष्णु ने विभिन्न युग में विभिन्न अवतार लिए हैं। उनमें से सत्ययुग में भगवान नारायण ने 5 (पांच) अवतार लिए थे जैसे कि – मत्स्य अवतार, कच्छप/कुर्म अवतार, वराह/शुकर अवतार, नरसिंह अवतार और वामन अवतार। वैसे ही त्रेता युग में भगवान नारायण ने दो अवतार लिए थे, जैसे राम अवतार और परशुराम/भृगुपति अवतार। फिर द्वापर युग में भगवान नारायण ने दो अवतार लिए थे जैसे कि – कृष्ण अवतार और हलधर/ बलराम अवतार।
इस कलियुग में भगवान नारायण कुल तीन अवतार लेंगे, ऐसा बताया गया है। लेकिन उनमें से दो का वर्णन इस दशावतार में किया गया है। कवि जयदेव जी महाराज के ‘गीत गोविन्द’ तथा भागवत शास्त्र आदि अनेक ग्रंथों में दशावतार के विषय में वर्णन मिलता है। उन दशावतारों के बारे में संक्षिप्त विवरण नीचे वर्णित है:-
1-मत्स्य अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान के मत्स्य अवतार के बारे में महर्षि वेदव्यास जी महाराज लिखते हैं:-
“आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः। समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप।।
कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली। मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत।।
ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम्। दधार शफरीरुपं भगवान् हरिरीश्वरः।।
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे। हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान् प्रत्याहरद्धरिः।।”
– श्रीमद्भागवत महापुराण-मत्स्यावतारकथा-अष्टमः स्कन्ध- चतुर्विंशोऽध्यायः
श्री जयदेव जी महाराज मत्स्य अवतार के बारे में अपने गीत गोविन्द में लिखते हैं कि:-
“प्रलय पयोधि जले धृतवानसि वेदम्, विहित वहित्र चरित्रमखेदम्।।
केशव धृत मीन शरीर जय जगदीश हरे।।”
भावार्थ:-
उपरोक्त दोनों श्लोकों में यही अर्थ मिलता है कि मत्स्य अवतार में प्रकट हो कर प्रभु ने क्या किया था। भगवान विष्णु ने मनु की नौका द्वारा मानव जाति को विनाशकारी प्रलय से रक्षा की थी। उन्हीं के माध्यम से ही भगवान विष्णु ने धर्म संस्थापना का कार्य किया था ।
एक दानव हयग्रीव ने वेदों को चुराया था और खुद को गहरे समुद्र के पानी में छिपा लिया था। भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया और हयग्रीव को मारने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया, और वेदों का उद्धार कर के उसे भगवान ब्रह्मा को लौटा दिया। सप्त ऋषियों का भी भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार में उद्धार किया था।
2-कच्छप/कुर्म अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज ने कच्छप अवतार के बारे में लिखा कि:-
“पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमन्दरगिरि- ग्रावाग्रकण्ड्वयनानिद्रालो
कमठाकृतेर्भगवतः श्वासानिलाः पान्तु वः।
यतसंस्कार कलानुवर्त्तन बशाद् बेलानिभेनायसां
जतायातमतंद्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति।।”
–श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कंध: १२/अध्यायः १३
अर्थात् – कुर्म यानी कछुआ अवतार में भगवान विष्णु ने स्वयं को दूध के समुद्र के तल पर रखा और समुद्र मंथन के लिए अपनी पीठ को मंदराचल पर्वत का आधार या धुरी बना दिया।
जब देवताओं को राक्षसों से अपना अधिकार खोने का खतरा होने लगा था, तब भगवान विष्णु ने उन्हें सागर मंथन करने की सलाह दी, ताकि वे अमृत की प्राप्ति कर सकें, जो उन्हें मजबूत और अमर बना देगा। समुद्र मंथन में दैत्यों की सहायता प्राप्त करने के लिए देवताओं ने दैत्यों के साथ समझौता किया और सभी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उन्होंने मिलकर समुद्र मंथन किया।
फिर जयदेव जी महाराज ने अपने गीत गोविंद में कच्छप अवतार के बारे में लिखा है कि:-
“क्षितिरति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे।धरणीधारणकिण चक्र गरिष्ठे।
केशव धृत, कच्छप रूप, जय जगदीश हरे।।”
अर्थात् – इसका अर्थ है कि, जब पृथ्वी पर अंधेरा ही अंधेरा था, तब उजाला लाने के लिए भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लिया और पृथ्वी को अपनी पृष्ठ पर उठाकर सूर्य के कक्ष पथ पर स्थापित किया।
3-वराह अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज ने वराह अवतार के बारे में लिखा कि:-
“तमालनील॰ सितदंतकोट्या क्ष्मामुक्षिपंत॰ गजलीलयांग।
प्रज्ञाय बंध्धाजलयोंधनुवाकै- र्बिरंचि मुख्या उपतस्थुरीशम्।।”
कवि जयदेव जी महाराज अपनी ग्रंथ गीत गोविंद में वराह अवतार के बारे में लिखते हैं कि: –
“वशति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना। शशिनी कलंक कलेव निमग्ना।
केशव धृत, शूकर रूप, जय जगदीश हरे।।”
अर्थात् – हिरण्याक्ष नाम के एक राक्षस ने पृथ्वी को समुद्र के नीचे तक घसीटा था। तब पृथ्वी की रक्षा करने के लिए, भगवान विष्णु ने सूअर (वराह) का रूप धारण किया और हजारों वर्षों के युद्ध के बाद, उन्होंने हिरण्याक्ष राक्षस का वध करके पृथ्वी को बचाया।
4-नरसिंह अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी ने नरसिंह अवतार के बारे में कहा है कि-
“दिबिस्पृशत्काय मदिर्घपी बरग्रीबोरुबक्षःस्थलमलुमध्यमम्।
चन्द्राशुगौरैश्चुरितं तद्वरुहैर्विष्वराभुजादिकशतं नखायुद्धम्।।
विष्वक् स्पुरन्तं ग्रहणातुरं हरिर्ब्यालो यथान्धन्धखु॰ कुलिशाक्षतत्वचम्।
द्वार्य्वर आपात्य ददार लीलया नखैर्यथाहिं गरुड़ों महाविषम्।।”
– भागवत पुराण -स्कंध 7-अध्याय 8: श्लोक 29
कवि जयदेव जी भी अपने गीत गोविंद में नरसिंह अवतार के बारे में लिखते हैं –
“तब कर कमलवरे नखमद्भुतशृंगम्, दलित हिरण्यकशिपु तनु भृंगम्।
केशव धृत, नरहरि रूप, जय जगदीश हरे”
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ यह है कि इस अवतार में भगवान विष्णु ने आधे नर और आधे शेर (सिंह) के रूप में अपने भक्त प्रहलाद को अपने पिता (दानव राजा- हिरण्यकशिपु) के अत्याचारों से बचाया था । हिरण्यकशिपु को वरदान था कि उसकी मृत्यु इस प्रकार हो कि वह न तो किसी मनुष्य या पशु द्वारा मारा जाए, न वायु, जल या समुद्र में, न घर में न बाहर, न दिन में, न रात में, न अस्त्र या शास्त्र और न किसी के द्वारा मारा जाए। इस वरदान को पाकर वह अपने आप को अमर मान बैठा था ।
भगवान नरसिंह एक स्तंभ से बाहर आए, और हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में बिठाया, और दरवाजे के प्रवेश द्वार पर, भगवान ने अपने लंबे नाखूनों से उसका पेट चीर डाला।
5-वामन अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज ने कहा है कि –
“यत् तद् बपुर्भात बिभुषणायुधैरब्यक्तचिद् ब्यक्तमधारयन्धरिः।
बभुव तेनैब स वामनो बटुः संपश्यतेर्दिव्यगतिर्यथा नटः”
– श्रीमद् भागवत पुराण-अष्टमः स्कंधः अष्टादशोऽध्यायः श्लोक 12
“धातु कमंडलुजलं तदुरुक्रमत्स्य, पादाबनेजन पवित्रतया नरेन्द्र।
स्वर्धुन्यभून्वभसि पतती निमार्ष्टि, लोकत्रयं भगवतो बिशदेव कीर्ति।।”
– श्रीमद्भागवत महापुराण/स्कंध ०८/अध्यायः २१
कवि जयदेव जी ने भी अपने गीत गोविंद में यही समान प्रमाण देते हुए लिखा है कि –
“छलयसि विक्रमणे वलीमद्भुतवामन, पदनखनीरजनित जन पावन,
केशव धृत, वामन रूप, जय जगदीश हरे”
उपरोक्त दोनों विचारों का अर्थ यह है कि यह अवतार (एक हाथ में जल का कमंडलु और दूसरे में एक छाता धारण करने वाले बौने के रूप में दर्शाया गया है) इंद्र के साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए लिया गया था।
राजा बलि: हिरण्यकशिपु का प्रपौत्र था। उसने अपनी तपस्या के बल पर तीनों लोकों में अपना अधिपत्य स्थापित किया था। जब उसकी प्रतिष्ठा इंद्र पर भारी पड़ने लगी तब इंद्र ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए भगवान विष्णु से मदद मांगी।
भगवान विष्णु ने स्वयं को एक बौने के रूप में प्रच्छन्न (परिवर्तित) किया और राजा बलि से कहा कि वह उन्हें भूमि का एक टुकड़ा तीन पग प्रदान करें, जिस पर वह ध्यान कर सकें । जब बलि ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया तब भगवान विष्णु ने अपनी अलौकिक शक्तियों का उपयोग करते हुए, पहले दो चरणों में पृथ्वी और स्वर्ग पर कब्जा कर लिया और बलि को उसके राज्य से वंचित कर दिया।
लेकिन राजा बलि ने अपनी उदारता दिखाई और भगवान से कहा कि वे अपना तीसरा पैर उसके शीश पर रखें। भगवान विष्णु बलि की उदारता देखकर प्रसन्न हुए और राजा बलि को पाताल का अधिपति बना दिया।
6-परशुराम अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी ने कहा है कि –
“अवतारे षोड़शमे पश्यन ब्रह्मद्रुहनृपान। त्रिसप्तकृत्वः कृपितोनिःक्षत्रा मकरोन महीम्।।”
“आस्तेन्धद्यापि महेंद्रादै न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः। उपगियमानचरितः सिन्दगन्धर्वचारणैः।।
एवं भृगुषु बिश्वात्मा भगवान हरिरीश्वरः। अबतीर्य परं भारं भुबोन्धहन बहुशोनृपान्।।”
कवि जयदेव जी अपनी ग्रंथ गीत गोविंद में लिखते हैं कि –
“क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापम्, स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्।
केशव धृत, भृगुपति रूप, जय जगदीश हरे।”
दोनों श्लोकों में दिए गए विचारों का अर्थ है कि भगवान विष्णु ने त्रेता युग में परशुराम/ भृगुपति के रूप में अवतार लिया था। परशुराम (दाहिने हाथ में एक कुल्हाड़ी के साथ उनके स्वरूप का वर्णन किया गया है ) भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। इस अवतार के समय महाप्रभु परशुराम ने क्षत्रियों के रक्त से धरती माता को शांत किया था। कहा जाता है कि उन्होंने अपने पिता के निधन पर क्रोधित होकर 21 बार क्षत्रियों को पृथ्वी से क्षत्रिय हीन कर दिया था।
7-राम अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी ने लिखा है कि –
“ततः प्रजग्मुः प्रशमं मरुद्गणा, दिशः प्रसेहुर्विमल नभोन्ध्धभवत्।
मही चकंम्पे न च मारुतो बबै, स्थिर प्रभश्चाप्यभवत् दिवाकरः।।”
– रामायणम्/युद्धकाण्डम्/सर्गः १११
इसी प्रकार अध्यात्म रामायण में राम अवतार के बारे में जो लिखा है, वे पंक्तियाँ नीचे उद्धृत हैं –
“एवं स्तुतस्तु देबेशो विष्णुस्तिदशपुंगबः।
पितामह पुरोगांस्तान् सरवलोकनमस्कृतः।।”
“अब्रबीत त्रीदशान सर्वान समेतान् धर्मसंहितान्।
सपुत्रपौत्रं सामात्यं समन्तिज्ञातिबांधवम्।।
हत्वा कुरंदूराधर्षं देवर्षीणां भयाबहम्।
दशवर्ष शहस्राणि दशवर्ष शतानि च।
वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्।।
रावणेन हृतं स्थानमस्काकं तेजसा सह,
त्वयाद्य निहतो दुष्टः पुनःप्राप्तं पदं स्वकम्।।”
कवि जयदेव जी भी अपने गीत गोविंद में राम अवतार को स्थान देते हुए लिखा है कि–
“बितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम्, दशमुख मौलिवलिं रमणीयम्।
केशव धृत, रघुपति रूप, जय जगदीश हरे।।”
ऊपर लिखी गई श्लोकों में बताया गया है कि भगवान राम विष्णु के सातवें अवतार हैं। इस अवतार में भगवान राम को धनुष और बाण के साथ दिखाया गया है। उन्होंने दशानन रावण को मृत्यु के घाट उतारकर अपनी पत्नी सीता को बंधन मुक्त किया था। त्रेता युग में धर्म संस्थापना के कार्यों में से यह प्रमुख कार्य था।
इस कार्य में उनकी मदद लक्ष्मण (उनके छोटे भाई में से एक) और हनुमान (वानर देवता) ने की थी। इस कहानी का वर्णन महान महाकाव्य रामायण में किया गया है। श्री राम का जीवन नैतिक उत्कृष्टता, और विवाह की स्थिरता का बड़ा उदाहरण है। वे दुनिया के बेहतरीन राजा थे। प्रजा पालन में उनसे श्रेष्ठ शायद कोई नहीं था। वे एक प्रबल प्रतापी योद्धा और वीर थे। उनके नाम मात्र से ही असुर दुराचारी कांपते थे। उनका आदर्श आचार ऐसा था कि धरती पर उनके राज्य को आदर्श राज्य माना जाता था। इसलिए आज तक हम आदर्श राज्य को ‘राम राज्य’ कहते हैं।
8-बलराम/हलधर अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज बलराम अवतार के बारे में लिखा है कि –
“स आजुहाब यमुनां जलक्रीड़ार्थमीश्वरः।
निजं बाक्यमनादृत्य मभ रत्यापगां बलं।
अनागतां हलाग्रेण कुपितो बिचकर्ष ह।।
पापे त्वं मामवज्ञांय यन्नायासि मयान्ध्धहुता।
नेष्ये त्वां लंगलाग्रेण शतधा काम चारिणीम्।।
एवं निर्भत्सिता भीता यमुना यदुनंदनम्
उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप।।”
– श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ६५
फिर कवि जयदेव जी महाराज ने अपनी ग्रंथ गीत गोविंद में हलधर अवतार के बारे में वर्णन किया है कि –
“बहसि बपुषि विशदे बसनं जलदाभम्, हलहतिभीति मिलित यमुनाभम्।
केशव धृत, हलधर रूप, जय जगदीश हरे।।”
उपरोक्त पंक्तियों का भावार्थ यह है कि जब द्वापर युग में प्रभु बलराम जी अपने गोपी गोपाल के साथ यमुना के किनारे लीला में थे और जब वे सभी यमुना नदी में स्नान करने के लिए गए थे, तब यमुना नदी ने, अपने घमंड में आकर, उन्हें स्नान नहीं करने दिया था। उस समय, प्रभु बलराम जी ने अपने हल से मिट्टी को चीर कर यमुना नदी की दिशा बदल दी और उनका घमंड तोड़ दिया।
9-बुद्ध अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज बुद्ध अवतार के बारे में लिखते हैं कि-
“ततः कलै संप्रबृत्ते सम्मोहाय सुरदिक्षाम्।
बुद्धो नाम्नाजनसुतः कींकटेषु भविष्यति।।”
– भागवत स्कंध १ अध्याय 6 श्लोक १९-२९
आगे कवि जयदेव जी महाराज ने अपनी ग्रंथ गीत गोविंद में बुद्ध अवतार के बारे में लिखा है कि –
“निंदसि यज्ञबिधेरहह श्रुतिजातम्, सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृत, बुद्ध शरीर, जय जगदीश हरे।।”
इन पंक्तियों में भगवान बुद्ध के बारे में समझाया गया है कि वे भगवान विष्णु के नौवें अवतार हैं। कलियुग में, देवद्वेषियों को मोहित करने के लिए, उड़ीसा के कींकट नगर में अजन के पुत्र के रूप में, उन्होंने जन्म लिया था (जो कि आवश्यक प्रमाण के बिना नेपाल में जन्म लिए थे बोला जाता है)। आधुनिक मान्यता के अनुसार गौतम बुद्ध ही बुद्ध अवतार है। कलियुग के अंत से कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने अवतार लेकर यज्ञ में पशु बलि की प्रथा को हटाकर धर्म संस्थापना का कार्य किया था।
10-कल्कि अवतार:-
श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि वेदव्यास जी महाराज कल्कि अवतार के बारे में लिखते हैं कि:-
“अथसै युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु, जनिता विष्णुयशसा नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः।।”
बादैर्वि मोहयति यज्ञकृतोर्न्धदर्हान, शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिश्यदन्ते।।”
– श्री मद्दभागवत-प्रथमः स्कन्धःतृतीय अध्याय श्लोक-25
कवि जयदेव जी महाराज अपनी ग्रंथ गीत गोविंद में कल्कि अवतार के बारे में लिखा है कि –
“म्लेच्छनीबह नीधने कलयसि करवालम्, धुमकेतु मिव किमपि करालम्।
केशव धृत, कल्कि शरीर, जय जगदीश हरे।।”
भगवान विष्णु के द्वारा धारण किए हुए पूरे दशावतार में से केवल यही कल्कि अवतार ही बाकी है। इस कलियुग में भगवान कल्कि धूमकेतु के समान भयंकर रूप धारण करेंगे। हाथ में एक बड़ा खड्ग धारण करके, घोड़े पर सवार होकर दुष्टों, पापियों, अत्याचारियों, दुराचारियों, म्लेच्छों का विनाश करेंगे और पृथ्वी पर सत्ययुग के लिए धर्म संस्थापना करेंगे ।
मुख्य तौर पर उपरोक्त दशावतार का वर्णन सर्वत्र किया गया है। इसे पढ़ने से क्या मिलता है, इसके बारे में श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णन है कि-
“शृण्वतां स्वकथां कृष्ण पूर्णश्रवणकीर्त्तनः। हृद्यन्तस्थो ह्यभप्राणी सुदुतसताम्।।
जन्म गुह्य भगवतो य एतत् प्रयतो नरः। सायं प्रातःर्गुणन भक्त्या दुःख ग्रामाद् बिमुखते।।”
– श्रीमद्भागवतम् प्रथम स्कन्धः द्वितीयोऽध्यायः श्लोक-17
इस दशावतार को पढ़ने और सुनने से क्या लाभ होता है, इसके बारे में श्री जयदेव जी भी इस प्रकार लिखते हैं कि:-
“श्री जयदेव कवेरिदमुदित मुदारम्। श्रृणु सुखदं शुभदं भव सारम्।
केशव धृत, दशविद्ध रूप, जय जगदीश हरे।।”
अर्थात् – भगवान विष्णु के दशावतार स्तोत्र का पाठ करना शुभ और सुखदायक होता है। इसे पढ़ने या सुनने से प्रभु की कृपा प्राप्त होती है और भवसागर से उद्धार मिलता है। श्री जयदेव जी, अपने ग्रंथ गीत गोविंद में लिखे दशावतार स्तोत्र के अंत में लिखते हैं कि:-
“वेदानुद्धरते जगन्ति वह भूगोलते मुद्बिभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छालयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
पौलस्त्यं जयते हलं कल्यते कारुण्यमातन्वते म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।”
हे, श्री कृष्ण ! आपने मत्स्यरूप धारण कर प्रलय समुद्र से डूबे हुए वेदों का उद्धार किया, समुद्र-मंथन के समय महाकुर्म बन कर पृथ्वी मंडल को पीठ पर धारण किया, महावराह के रूप में कारणार्णव में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया, नृसिंह के रूप में हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों का विदारण किया, वामन के रूप में राजा बलि को छला, परशुराम के रूप में क्षत्रिय जाति का संहार किया, श्री राम के रूप में महाबली रावण पर विजय प्राप्त की, श्री बलराम के रूप में हल को शस्त्र रूप में धारण किया, भगवान बुद्ध के रूप में करुणा का विस्तार किया तथा कल्कि के रूप में म्लेच्छों को मूर्छित करेंगे । इस प्रकार दशावतार के रूप में प्रकटित महाप्रभु श्री कृष्ण जी आपके चरणों में मैं वन्दना करता हूँ ।
भविष्य मालिका ग्रंथ के रचयिता महापुरुष अच्युतानंद जी अपनी ग्रंथ अष्टगुज्जरी में लिखते हैं कि-
“भाव विनोदिया ठाकुर भक्त वत्सल हरि,
भक्त न्क पाईं कलेवर दश मुरती धरि।”
अर्थात् – भगवान विष्णु भक्त वत्सल है, भाव के भगवान है, भक्त लोगों के भाव को ही समझते हैं। युग-युग में भक्त लोगों के कल्याण हेतु ही दस अवतार धारण करते हैं।
“जय जगन्नाथ”